चन्द्र बुध शनि

जीवन को शुरु करने का समय प्रकृति कहां से तय करती है इसके बारे में कई विचार सामने आते है,अगर जीवन पैदा होने के बाद शुरु हुआ तो पैदा होने के पहले जो शरीर का निर्माण हुआ वह बिना जीवन के शुरुआत हुये सम्भव ही नही था,लेकिन शरीर के निर्माण के पहले कारक अगर नही होते तो शरीर का निर्माण होता काहे से,शरीर निर्माण के कारक कहां से आये इस बात का पता जब तक नहीं चलता है तब तक जीव का निर्धारण कहां से किया जा सकता है। इन सब बातों के लिये सबसे पहले अपने को कुंडली के चौथे भाव से चलना पडेगा,चौथे भाव को कल्पना का भाव भी कहा जाता है,चौथा भाव माता का होता है,और चौथा भाव पानी का भी होता है,चौथा भाव वाहन का भी होता है,चौथे भाव से ही अगर हम इस बात का पता करने निकलें कि वास्तविक जीवन कहां से शुरु होता है तो अति उत्तम होगा। पिता का चौथा भाव लगन को मानते है तो माता का चौथा भाव सप्तम में होगा,मन के अन्दर की भावना को देखना है तो भी सप्तम के भाव को समझना जरूरी है,मन के अन्दर क्या चल रहा है,तो दूसरे भाव को देखना पडेगा,मन की चाही गयी वस्तु मिलेगी या नही इस बात को देखने के लिये मन के भाव के दूसरे और मन के भाव से ग्यारहवें भाव को देखना जरूरी है। मन की चाही गयी वस्तु मिल तो गयी है लेकिन मिलने के बाद उसका क्या होगा उसके लिये मन से अष्टम में जाना पडेगा। मन पानी की तरह होता है जरा सी बात की झलक मिली और मन के विचार आने जाने लगते हैं। जैसा खावे अन्न वैसा बने मन्न,यह बात भोजन के लिये मानी जाती है,भोजन के अनुसार ही मन का बनना भी सही है,तीन गुणों के अनुसार अगर हम भोजन का रूप देखते है तो सत,रज और तम ही मिलते है,सात्विक खाने को दाल रोटी से माना जा सकता है,लेकिन दाल भी देखनी पडेगी कि वह कहीं सडी तो नही है,रोटी किस पानी से बनायी गयी है,रोटी को जब बनाया गया तो कितनी सफ़ाई रसोई में थी,इस बात का ख्याल भी रखना पडेगा,रोटी खाने के बाद मन अगर बेकार के विचार जैसे खाना हजम करने के लिये कहीं रात भर करवटें तो नही बदलनी पडी थी,य़ा खाना खाने के बाद थोडी देर में ही फ़िर से भूख तो नही लग गयी थी,राजसी खाने के बाद जीभ खाने के अन्दर मिलने वाले स्वाद खाने को परोसे जाने वाला ढंग,खाना खाने का स्थान,खाना को खाने की मात्रा वह एक बार में ही खाया गया या दुबारा भी खाने के लिये बांधा गया है,खाने को हजम करने की शक्ति,खाने को पचाने का काम और खाने को हजम करने के बाद दूर करने का काम,यह सब लगन से लेकर आठवें भाव तक की क्रिया है,अब जो खाने का असर होना है वह नवें भाव से शुरु होगा,सात्विक है तो सात्विकता में विचार चलेंगे,राजसी खाया है तो राजसी विचार चलेंगे,और तामसी खाया है तो गाली गलौज और मारकाट वाले विचार चलेंगे। सात्विक खाना मन को शुद्ध रखने का काम करता है और राजसी खाना अहम की भावना देता है,तामसी खाना अशुद्ध विचारों का जन्मदाता होता है। मैने यहां खाने की बात को गौढ रूप में इसलिये लिया है क्योंकि यजुर्वेद में कहा गया है कि भोजन में प्रयोग किये जाने वाले अन्न या अन्य कारणों से जो "रितिक" चलता है वह ही जीवन को देता है,लेकिन समस्या यहां भी आती है कि जो लोग अन्न खाते ही नही है केवल मांसाहारी ही है,तो उनके शरीर में रितिक नही चलेगा,ऐसा नही है,जो लोग मांसाहारी है,उन्होने जिस मांस का भक्षण किया है उस मांस वाले जीव ने भी कोई अन्न का सेवन किया होगा,वह रितिक ही जीवन का दाता होता है,एक बार भोजन करने के बाद चालीस दिन तक उस किये गये भोजन की क्रिया चलती है,भोजन से रितिक पहले शरीर में पानी के अन्दर मिलता है फ़िर मांस के अन्दर मिलता है,फ़िर खून के अन्दर मिलता है,खून से चालीसवें दिन वह वीर्य या रज के रूप में तैयार होता है और अपने स्थान में जमा होजाता है।

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