योग का रूप (भाग दो)

आगे प्रश्न पैदा होता है कि चित्त का शुभ आश्रय क्या है,जिसका अवलम्बन करने के बाद वह सम्पूर्ण दोषों की उत्पत्ति को नष्ट कर देता है। चित्त का आश्रय ब्रह्म है,उसके दो स्वरूप है मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर,संसार में तीन ही प्रकार की भावनायें है,और उन भावनाओं के कारण यह जगत तीन प्रकार का कहा जाता है,पहली भावना है कर्म भावना दूसरी है ब्रह्म भावना और तीसरी भावना का नाम है उभयात्मिका भावना। पहली कर्म भावना होने पर वह कर्मभावात्मिका है,दूसरी ब्रह्मभावना होने पर ब्रह्मभावानात्मिका है,और तीसरी भी उभयात्मिका भावना होने से उभयात्मिका है। जो सिद्ध पुरुष होते है वे ब्रह्मभावना से पूर्ण होते है,इसके बाद जो भी देवी देवता मनुष्य जीव जन्तु होते है वे कर्मभावना से जुडे होते है,जिनके पास सच्चिदानन्द की अनुभूति और सृष्टि के निर्माण का अधिकार होता है वे ब्रह्मभावना और कर्मभावना दोनो से जुडे होते है। इसलिये जब तक सम्पूर्ण कर्म क्षीण नही होते है तभी तक भेद दर्शी मनुष्यों की नजर में विश्व और परब्रह्म अलग अलग मालुम होते है,जहां सभी भेदों का अभाव हो जाता है जो केवल सत है और वाणी का अविषय है और खुद के द्वारा जो अनुभव किया जाता है वही ब्रह्मज्ञान कहा जाता है। वही अजन्मा और और निराकार विष्णु का परम स्वरूप है,जो उनके विश्वरूप से सर्वथा विलक्षण है। योग का साधक पहले उस निर्विशेष स्वरूप का चिन्तन नही कर सकता है,इसलिये उसे श्रीहरि के विश्वमय स्थूलरूप का ही चिन्तन करना चाहिये। भगवान हिरण्यगर्भ इन्द्र प्रजापति मरुद्गण वसु रुद्र सूर्य तारे ग्रह गन्धर्व यक्ष और दैत्य आदि समस्त देव योनियां मनुष्य पश पर्वत समुद्र नदी वृक्ष सम्पूर्ण भूत तथा प्रधान से लेकर विशेष पर्यन्त उन भूतों के कारण तथा चेतन अचेतन एक पैर दो पैर और अनेक पैर वाले जीव तथा बिना पैर वाले प्राणी ये सब भगवान विष्णु के त्रिविध भावनात्मक मूर्तरूप है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत परब्रह्म भगवान विष्णु का उनकी शक्ति से सम्पन्न विश्व नामक रूप है।

शक्ति तीन प्रकार की बतायी गयी है,परा अपरा और कर्मशक्ति। भगवान विष्णु को पराशक्ति कहा गया है,क्षेत्र का अधिकार रखने वाले अपराशक्ति के अन्दर आते है,और अविद्या यानी जो केवल किया जाये वह कर्म शक्ति के रूप में सामने आता है। क्षेत्रज्ञ शक्ति संसार के सभी शरीरों में जन्म से ही व्याप्त होती है,और कर्मशक्ति की पूर्णता से अपने आप ही क्लेश भोगने के लिये काफ़ी मानी जाती है। यह क्षेत्रज्ञ शक्ति जब कर्म शक्ति से जुडी होती है तो अपने अपने क्षेत्र में अपने को सर्वोपरि कर्म शक्ति से मानने लगती है। जैसे एक गाय का बच्चा गाय को अपनी सुरक्षा का कारण मानता है और गाय अपने बांधे जाने वाले स्थान को सुरक्षित समझती है,तथा गाय को रखने वाला गाय को अपनी सम्पत्ति या अधिकार मानता है। उसी प्रकार से जब गाय का बच्चा बडा हो जाता है तो वह गाय की सुरक्षा को भूल जाता है और खुद को अपनी सुरक्षा के मामले में मानने लगता है और अपने बांधे जाने वाले स्थान को अपना क्षेत्र मानने लगता है,जब कभी उसे उस बांधे जाने वाले स्थान को छोडना पडता है तो वह बार बार उसी स्थान पर आने की कोशिश करता है। उसके स्थान पर नही आने देने के कारण जो दुख पैदा होता है वही क्लेश का कारण होता है।

जिस प्रकार से इस भौतिक शरीर में प्राण वायु के रहते यह शरीर जिन्दा दिखाई देता है,उसी तरह से इस धरती के ऊपर जो भी स्थान है वे जीवों के रहने पर सजीव और बिना जीवों के रहने के निर्जीव कहलाते है। नदी के अन्दर पानी के जीव होने पर नदी सजीव और पानी के साथ जीव नही होने से निर्जीव कहलायी जाती है,पेड के अन्दर जीव होने से वह फ़लता फ़ूलता है और बिना जीव के वह सूख कर बिखर जाता है,यही हाल पर्वतों के पहाडों के लिये माना जाता है उनकी खोहों में जीव जन्तुओं के रहने पर वे सजीव होते है और बिना जीव जन्तु के निर्जीव कहे जाते है। लेकिन प्राणहीन होने पर वे अपने आप कोई कार्य या कर्मशक्ति को प्रेरित नही कर सकते है,उनके अन्दर रहने वाले जीव ही उनके लिये कर्म शक्ति के कारक होते है। इस प्रकार के कारकों को जड कहा जाता है। स्थावर प्राणी वे कहलाते है जो शरीर के होते हुये और प्राण वायु के होते हुये भी कर्म तो करते है लेकिन कर्म का अधिकार उनका नही होता है,और न ही उनके लिये कोई क्षेत्र का ज्ञान होता है,पक्षी सर्प जीव जन्तु और हिरन जंगली जानवर आदि इसी श्रेणी में आते है उनके लिये कोई क्षेत्र की सीमा नही होती है जहां भी उनके लिये भरण पोषण का मिलना होता है वही उनका क्षेत्र होता है।

पशु पक्षियों की अपेक्षा मनुष्य परम पुरुष भगवान की उस क्षेत्रज्ञ शक्ति से अधिक प्रभावित है,मनुष्यों से भी बडे नाग गन्धर्व यक्ष आदि देवता है,देवताओं से भी इन्द्र और इन्द्र से भी प्रजापति उस शक्ति में बडे है। प्रजापति की अपेक्षा भी हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी में भगवान की उस शक्ति का विशेष प्रकाश हुआ है। यह सम्पूर्ण शरीर रूपों में परमेश्वर का ही रूप है। क्योंकि यह सब आकाश की भांति उनकी शक्ति से व्याप्त है। विष्णु नामक ब्रह्म का दूसरा अमूर्त रूप (निराकार रूप) है,जिसका योगीलोग ध्यान करते है और विद्वान पुरुष जिसे सत कहते है। भगवान का वही रूप अपनी लीला से देव तिर्यक और मनुष्य आदि चेष्टाओं से युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है,इन रूपों में अप्रमेय भगवान की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है वह सम्पूर्ण जगत के उपकार के लिये होती है। कर्मजन्य नही होती है। योग के साधक की आत्मशुद्धि के लिये विश्वरूप भगवान के उस सर्वपापनाशक स्वरूप का ही चिन्तन करना चाहिये। जैसे वायु का सहयोग पाकर प्रज्ज्वलित हुयी अग्नि ऊँची लपटें उठाकर तृणसमूह को भस्म कर डालती है,उसी प्रकार योगियों के चित्त में विराजमान भगवान विष्णु उनके समस्त पापों को जला डालते है। इसलिये सम्पूर्ण शक्तियों के आधारभूत भगवान विष्णु में चित्त को स्थिर करे यही शुद्ध धारणा है।

तीनो भावनाओं से अतीत भगवान विष्णु ही योगियों की मुक्ति के लिये इनके सब ओर जाने वाले चंचल चित्त के शुभ आश्रय है। भगवान के अतिरिक्त जो मनके दूसरे आश्रय सम्पूर्ण देवता आदि है,वे सभी अशुद्ध है। भगवान का मूर्त रूप चित्त को दूसरे सम्पूर्ण आश्रयों से दूर कर देता है। चित्त को ओ भगवान में धारण करना स्थिरतापूर्वक लगाना है उसे ही धारणा समझना चाहिये। बिना किसी आधार के धारणा हो ही नही सकती है। अत: भगवान के सगुण साकार रूप चित्त में धारण करने के लिये मनुष्य रूप मुख प्रसन्न और सुन्दर है,नेत्र विकसित है दोनो कपोल बहुत ही सुहावने है,और चिकने है ललाट चौडा है और प्रकाशित है,उनके दोनो कान बराबर है,मनोहर कुंडल कंधे तक लटक रहे है,गर्दन शंख के आकार की है और विशाल छाती और उसमें श्रीवत्स का चिन्ह (भृगु के पद का निशान) शोभयमान है। उनके पेट पर तीन रेखायें जो त्रिवली कहलाती है उपस्थित है,गहरी पानी में पडने वाले भंवर के आकार की नाभि है। वे चार या आठ भुजायें धारण करते है,उनके दोनो उरु और जंघा समान भाव से स्थिर है,और मनोहर चरण हमारे सम्मुख स्थिर भाव से खडे है। उन्होने स्वच्छ पीताम्बर धारण कर रखा है,इस प्रकार उन ब्रह्मस्वरूप भगवान विष्णु का चिन्तन करना चाहिये। उनके मस्तक पर मुकुट गले में हार भुजाओं में केयूर और हाथों में कडे आदि आभूषण उनकी शोभा बढा रहे है। शारंग धनुश पांचजन्य शंख कौमोद की गदा नन्दक खंग सुदर्शन चक्र अक्षमाला तथा वरद और अभय मुद्रा यह सब भगवान के कर कमलों की शोभा बढाते है। उनकी अंगुलियों रत्नमयी अंगूठियां शोभा दे रही है,इस प्रकार योगी भगवान के मनोहर स्वरूप में अपना चित्त लगाकर तबतक उनका चिन्तन करता रहे जब तक उसी स्वरूप में उसकी धारणा न हो जाये। चलते फ़िरते उठते बैठते अथवा अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा कोई कार्य करते समय भी यही धारणा चित्त से अलग न हो तब उसे सिद्ध हुआ मानते है।

इसके द्रढ होने पर बुद्धिमान पुरुष भगवान के ऐसे स्वरूप का चिन्तन करे,और जिसमें शंख चक्र गदा तथा शारंग धनुष आदि आयुध न हों। वह स्वरूप परम शान्त और अक्षमाला और जनेऊ से विभूषित हो,जब यह धारण भी पूर्वत स्थिर हो जाये तो भगवान के किरीट केयूर और आभूषणों से रहित स्वरूप का चिन्तन करे,तत्पश्चात विद्वान साधक अपने चित्त से भगवान के किसी एक अवयव चरण या मुखारविंद का ध्यान करे,उसके बाद अवयवों का भी ध्यान छोड कर केवल अवयमयी भगवान के ध्यान में तत्पर हो जाये।जो सिद्ध वस्तुओं की इच्छा से रहित ध्येयाकार चित्त की एक अनवरत धारा है उसी को ध्यान कहते है।

1 comment:

neeraj said...

Amazing. Please carry on the good work.
Regards
N