मुक्ति प्रद योग का रूप

योग के स्वरूप को समझने के लिये यह जान लेना जरूरी है कि योग में जाने के बाद मनुष्य अपने स्वरूप से अलग नही होता है,मन ही मनुष्य के बन्धन का कारण है,विषयों में आसक्ति ही बन्धन का कारण है और विषयों से दूर हटकर वही मोक्ष का साधक बन जाता है.इसलिये विवेक और ज्ञान से पूर्ण व्यक्ति मन को विषयों से हटाकर परमेश्वर का चिन्तन करता है। जैसे चुम्बक अपनी शक्ति से लोहे को अपनी तरफ़ खींच कर अपने में संयुक्त कर लेती है,उसी प्रकार से ब्रह्म चिंतन करने पर व्यक्ति को परमात्मा अपने में लीन कर लेता है। परमेश्वर की अपेक्षा रखने वाले मन की स्थिति की जो गति है वह गति जब ब्रह्म में लीन हो जाती है उसी संयोग को योग कहा जाता है। जो अपने योग को अपनी ज्ञान की कसौटी पर जगत कल्याण के लिये प्रयोग किया जाता है और उस योग को जो अपने ज्ञान से प्राप्त कर लेता है वह व्यक्ति ही योगी कहलाता है। पहले योग की क्रिया को धारण करने वाला और योग की क्रिया के अभ्यास में जाने वाला युंजान योगी कहलाता है,यानी उसकी धारणा जगत के भौतिक कारणों से अलग होने की क्रिया जानी जाती है। और जैसे ही योग को धारण करने के बाद और लगातार अभ्यास करने के बाद जब परमात्मा की प्राप्ति होने लगती है तो वही व्यक्ति योग से सम्पन्न योगी बन जाता है,अगर किसी कारण से उस व्यक्ति की आत्मा योग के समय में भी भ्रष्ट हो जाती है तो दूसरे जन्म में किसी भी कारण से उत्पन्न योग की प्राप्ति के द्वारा उसकी क्रिया अपने आप शुरु हो जाती है और वह व्यक्ति दूसरे जन्म में योग की प्राप्ति करने के बाद परमात्मा को प्राप्त करने में सफ़ल हो जाता है। जो योगी अपनी मानसिक स्थिति को परमात्मा की तरफ़ लगा लेता है वह अपनी सम्पूर्ण कर्म राशि को खत्म कर डालता है,उसे किसी भी कारक और कारण से लगाव नही रह जाता है। योगी के लिये सबसे उत्तम बिन्दु जो अपने मन के अन्दर रखने चाहिये वह ब्रह्मचर्य अहिंसा सत्य अस्तेय और अपरिग्रहण है इनके बिना योग की प्राप्ति नही हो सकती है। यह पांच यम कहे जाते है,यम नियम भी कहे जाते है। इनके साथ ही शौच संतोष तप स्वाध्याय तथा परमात्मा में मन को लगाना यह पांच नियम कहे जाते है इसलिये योग के लिये पांच पांच यम नियम का विधान है। अपने मन के अन्दर यह मुझे प्राप्त करना है या योग को मुझे धारण करना का विचार लगातार रखने से और इस कार्य के लिये कतई भी मन को बाहर के सुखों से दूर रखने पर ही योग की प्राप्ति होती है।
योग को सीखने वाले के लिये आवश्यक है कि वह स्वास्तिक सिद्ध पद्य आदि आसनों में किसी एक का आश्रय जरूर ले,और यम नियम के अनुसार अपनी साधना में रत हो जाये। अभ्यास से ही प्राणवायु को वश में किया जाता है,इसे ही प्राणायाम कहा जाता है,यह दो प्रकार की होती है सबीज और निर्बीज। जिसके अन्दर भगवान के नाम और रूप का समावेश हो वह सबीज प्राणायाम कहलाता है,और जो बिना किसी नाम और रूप के मन में धारण किया जाय वह निर्बीज प्राणायाम कहलाता है।
प्राणायाम को करते समय जब नाक के एक स्वर से वायु को शरीर में खींच कर भरा जाता है तो यह क्रिया पूरक कहलाती है और इस क्रिया के करने से प्राण वायु के शरीर में भरने से अपान वायु को दबाया जाता है,फ़िर प्राण वायु को शरीर के अन्दर तोका जाता है,और जिस नाक से प्राण वायु को भरा गया था उसके छिद्र को बन्द करने के बाद दूसरे से प्राण वायु को बाहर निकालने की क्रिया की जाती है,इन तीनो का क्रमश: नाम पूरक कुम्भक और रेचक कहा जाता है।
जब सबीज प्राणायाम किया जाता है तो भगवान विष्णु का रूप सामने आने लगता है,इसके अलावा जब सब इन्द्रियों को बस में करने के बाद मन को साधा जाता है तो योग की क्रिया शुरु हो जाती है,जब तक इन्द्रियां वश में  नही होती है व्यक्ति प्राणायाम नही कर सकता है। इसके लिये लगातार पूरक कुम्भक और रेचन क्रिया के द्वारा मन को बस में करना चाहिये। आगे बतायें के चित्त के रूप.........

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