वेद


श्री वेद
वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं,जिसका प्रादुरभाव ॠषियों द्वारा स्रष्टि के आरम्भ मे समाधि द्वारा होता है.
१.मूल वेद मन्त्र:-इन मन्त्रों की चार सहिंतायें है,जो ॠग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद,और अथर्ववेद कहलाती हैं.इनकी ही पाठादि से १९३३ शाखायें कहलाती हैं.
२.ब्राहमण ग्रन्थ:-इनमे अधिकतर मूल वेदों मे बतलाये हुए धर्म अर्थात यज्ञादि कर्मो,तथा विधि निषेध की विस्त्रत व्याख्या और व्यवस्था है.ब्राहमण नामकरण का कारण यह है कि इनका प्रधान विषय ब्रहमन बॄह वर्धने यानी बढने वाला अर्थात वितान यज्ञ है. इनमे चार प्रसिद्ध हैं,ऐतरेय ॠग्वेद का,शतपथ यजुर्वेद का,ताण्य ब्राहमण सामवेद का,और गोपथ अथर्वेद का.ब्राहमण ग्रन्थों मे कुछ अंश ऐसा भी सम्मलित है,जो मूल वेद मन्त्रों के आशय से विपरीत हो जाता है.
३.उपनिषद:-उपनिषद का मुख्य अर्थ ब्रह्म विद्या है,और यहां उपनिशद ब्रह्म विद्या प्रतिपादक ग्रन्थ विशेष के हैं.इनमे अधिकतर वेदों मे बताये हुए आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है.इन्ही को वेदान्त कहते हैं,इनमे मुख्य ग्यारह हैं,ईश,केन,कठ,प्रश्न,मुण्डक,माण्डूक्य,तैतरीय,ऐतरेय,श्वेताश्वतर,छान्दोग्य,और बॄहदारण्यक.
श्री दर्शन
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वेदों मे बतलाये हुए ज्ञान की मीमांसा दर्शन शास्त्रों मे मुनियों द्वारा सूत्र रूप से की गई है,दर्शन शब्द का अर्थ है:"दॄशयते अनेन इति दर्शनम",जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात वस्तु का तात्विक स्वरूप जाना जावे.
प्राणीमात्र की दु:ख निवॄत्ति की ओर प्रवॄत्ति
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छोटे छोटे कीट से लेकर बडे बडे सम्राट तक प्रतिक्षण तीनो प्रकार के आध्यात्मिक,आधिदैविक,और आधिभौतिक,दुखों मे से किसी न किसी दुख को दूर करने का प्रयत्न करते हैं,फिर भी दुखों से छुटकारा नही मिलता है,जिस प्रकार से रेतीले रेगिस्तान मे हिरन पानी के लिये गर्मी की चिलकाई की ओर इस भ्रम से भागता है,कि वह पानी है,मगर पानी की जगह उसे चिलकाई और पानी की प्यास बढाकर और दूर हो जाती है,उसी प्रकार से मनुष्य विषयों के पीछे विषयों को ही सुख समझ कर उनके पीछे पीछे दौडता रहता है,और वे ही विषय उसे चिलकाई की तरह से अपनी भन्गिमा को दूर और दूर लेकर चलते चले जाते हैं.और मनुष्य पूरी जिन्दगी भागता है मगर उनको प्राप्त नही कर पाता है.इस लिये जो तत्वों को जानने वाले के लिये चार प्रश्न सामने किये गये हैं:-
१.हेय:-दुख जो सामने है उसका असली रूप क्या है,जिसे त्यागना है,हेय करना है.
२.हेय हेतु:-जो दुख सामने है कहाँ से पैदा हो गया है,द्ख किस कारण से पैदा हुआ है,यही हेय यानी त्यागने का हेतु माना जाता है.
३. हान:-दुख जो सामने है,वह दुख जीवन मे किस अभाव के कारण से पैदा हुआ,वह हान क्या है.
४.हान्तोपाय:-जो दुख है उसको दूर करने का उपाय क्या है.
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तीन मुख्य तत्व
इन प्रश्नो पर विचार करते हुए तीन प्रकार की बातें और सामने आती हैं-
१.चेतन तत्व (आत्मा-पुरुष-जीव)
दुख किसको होता है?जिसको दुख मिलता है,उसका असली रूप क्या है?अगर दुख उसका स्वभाविक रूप होता,यानी उसे यह दुख हमेशा से मिलता आया होता तो वह उस दुख से बचने का प्रयत्न ही नही करता.इससे मालुम चलता है कि वह ऐसा कोई तत्व है,जिसका दुख और एक ही स्थान पर रुके रहना,यानी जडता,उसका स्वभाविक धर्म नही है.वह चेतन तत्व है.यह चेतन यानी आत्मा,के पूर्ण ज्ञान से तीसरा प्रश्न हान सुलझ जाता है.यानी जो आत्मा है,उसके यथार्थ रूप का ज्ञान होने पर आत्मा को साक्षात देख कर,जो खुद की स्वरूप स्थिति है,को जानकर दुख का हमेशा के लिये खात्मा हो जाता है.
२.जड तत्व (प्रकॄति)
यह चलता फिरता तत्व,जो चेतन तत्व कहालाता है,इससे बिलकुल उल्टा यानी विपरीत,किसी और तत्व को मानने की जरूरत पडती है,जिसका धर्म ही दुख है,और जहाँ से दुख पैदा होता है,और जो इस चेतन तत्व से बिलकुल उल्टा है.उसे ही हम जड तत्व कहते हैं,जिसका स्वभाव "माया" है,इस माया के यथार्थ रूप को समझ लेने से पहला प्रश्न हेय और दूसरा हेय हेतु,दोनो ही सुलझ जाते है.मतलब दुख इसी माया का स्वाभाविक गुण है,यह आत्मा का स्वाभाविक गुण नही है.माया और चेतन की आपसी मित्रता ही जो कि बिना किसी संयोग के की जाती है,यही त्याज्य दुख का वास्तविक रूप है,चेतन के साथ माया का झूठा ज्ञान ही अविद्या कहलाती है.जहाँ से यह दोनो साथ हुए,उनका पता कर लेने पर उसका निवारण किया जा सकता है,इसी नाम को हान्तोपाय कहते है.

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