दूसरा प्रकरण (पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा)

कर्मकाण्ड
वेद मंत्रों में बतलायी हुयी - कर्तव्य कर्मों अर्थात इष्ट और पूर्त कर्मों की शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है,इष्ट वे कर्म है,जिनकी विधि मन्त्रों में दी गयी है,जैसे यज्ञादि और पूर्त वे सामाजिक कर्म है,जिनकी आज्ञा वेदमें हो किन्तु विधि लौकिक हो जैसे पाठशाला कूप विद्यालय अनाथालय आदि बनवाना इत्यादि। इन दोनो कर्मों के तीन अवान्तर भेद है नित्यकर्म नैमित्तिक कर्म,और काम्यकर्म।

  1. नित्य कर्म:- वे कर्म है जो नित्य किये जायें जैसे पंचमहायज्ञ आदि.
  2. नैमित्तिक कर्म :- वे कर्म है जो किसी निमित्त के होने पर किये जायें जैसे पुत्र का जन्म होने पर जातकर्म.
  3. काम्यकर्म :- वे कर्म है जो किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामना से किये जायें,इनके अतिरिक्त कर्मो के दो भेद और हैं जैसे निषिद्ध और प्रायश्चित कर्म आदि।
(अ) निषिद्ध कर्म:- जिनके करने का शास्त्रों मेम निषेध हो.
(ब) प्रायश्चित कर्म:- जो विहित कर्म न करने अथवा विधिविरुद्ध के करने या वर्जित कर्म करने से अन्त:करण पर मलिन संस्कार पड जाते है,उनके धोने के लिये किये जायें।

नित्य कर्म करने के लिये मनुष्य को व्यवहारिक रूप की बजाय स्वजीवन में अपनाने की बात कही गयी है,जिस प्रकार से रहने वाले स्थान की साफ़ सफ़ाई करने के बाद स्थान रहने में दिक्कत नही आती है उसी प्रकार से शरीर की साफ़ सफ़ाई करने के बाद आत्मा को कोई तकलीफ़ नही होती है। नित्य कर्मों के अन्दर जो बातें एक योगी के लिये बताई गयीं है वे इस प्रकार से है।
किसी कामना की सिद्धि के लिये किये गये कर्मों का फ़ल भोगना ही पडेगा,तथा प्रतिषिद्ध कर्मो का आचरण अशुभ फ़ल करेगा ही। अत: इस प्रकार के कर्मों से दूर रहना जरूरी है। लेकिन नित्य कर्मों और नैमित्तिक कर्मों को करना बहुत ही जरूरी है,कामना के लिये किये कर्मों और जो कर्म नही करने होते है उनसे दूरी लेकिन उनके लिये पहले प्रयश्चित और नित्य और नैमित्तिक कर्मों में लगातार लगे रहने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उपासना खण्ड
मन इन्द्रियों की लगाम की तरह से है,इसे ढीला करने से इन्द्रियां अपने नियत स्थान से पता नहीं कहाँ से कहाँ जाने लगेंगी इस मन को बुद्धि के द्वारा साध कर केवल एक ही दिशा में ले जाने के लिये वेदमन्त्रों में लवलीनता के रूप में बताया गया है,किसी एक मन्त्र को लगातार मन में ग्रहण करने के बाद मन को साधा जा सकता है,यही उपासना खंड का रूप है,और यही पूजा पाठ के रूप में माना जाता है,जब मन एक ही लक्ष्य पर चला जाता है तो किया जाने वाला कार्य जरूर पूरा होता है,वह चेतन मन से हो या अवचेतन मन से।
ज्ञानकाण्ड
वेद मन्त्रों में जहां जहां आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है,उसको ज्ञानकाण्ड कहते है,मन्त्रों के कर्मकाण्ड का विस्तारपूर्वक वर्णन मुख्यतया ब्राह्मण ग्रंथों में ज्ञानकाण्ड का आरण्यकों में तथा उपनिषदों में और उपासनाकाण्ड का दोनों में वर्णन किया गया है।
मीमांसा
इन तीनो काण्डों के वेदार्थ विषयक विचार को मीमांस कहते है,मीमांसा शब्द ’मान ज्ञाने’ से जिज्ञासा अर्थ में ’माने जिज्ञासायाम’ वर्तिक की सहायता से निष्पन्न होता है,मीमांसा के दो भेद है- ’पूर्व मीमांसा’ और ’उत्तरमीमांशा’। पूर्व मीमांसा में कर्म काण्ड और उत्तरमीमांसा में ज्ञानकाण्ड पर विचार किया गया है।
उपासना दोनो में सम्मिलित है,इस प्रकार ये दोनो दर्शन वास्तव में एक ही ग्रन्थ के दो भाग कहे जाते है,पूर्वमीमांसा श्रीव्यासदेवजी के शिष्य जैमिन मुनि ने प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थियों तथा कर्मकाण्डियों के लिये बनायी है,उसका प्रसिद्द नाम मीमांसादर्शन है। इसको जैमिनि दर्शन भी कहते है,इसके बारह अध्याय है जो मुख्यतया कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखते है। उत्तरमीमांस निवृत्तिमार्ग वाले ज्ञानियों तथा सन्यासियों के लिये श्रीव्यास महाराज ने स्वयं रचा है। वेदों के कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्यों में जो विरोध प्रतीत होता है,केवल उसके वास्तविक अविरोध को दिखलाने के लिये पूर्वमीमांसा की और वेद के ज्ञानकाण्ड में समन्वयसाधन और अविरोध की स्थापना के लिये उत्तरमीमांसा की रचना की गयी है। इस कारण इन दोनों दर्शनों में शब्द प्रमाण को ही प्रधानता दी गयी है,दोनो दर्शनकार लगभग समकालीन हुये है,इसलिये श्री जैमिनि का भी वही समय लेना चाहिये जो उत्तरमीमांसा के प्रकरण में श्रीव्यासदेवजी महाराज का बतलाया गया है।
पूर्वमीमांसा
मीमांसा का प्रथम सूत्र है ’अथातो धर्मजिज्ञासा’ अर्थात अब धर्म की जिज्ञासा करते हैं।
मीमांसा के अनुसार धर्म की व्याख्या वेदविहित शिष्टों से आचरण किये हुये कर्मों में अपना जीवन ढालना है। इसमें सब कर्मों को यज्ञों के अन्तर्गत कर दिया गया है,भगवान मनु ने भी ऐसा ही कहा है ’महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:’ महायज्ञों तथा यज्ञों द्वारा ब्राह्मण शरीर बनता है,पूर्णिमा तथा अमावस्या में जो छोटी छोटी इष्टियां की जाती है,इनका नाम यज्ञ और अश्वमेधादि यज्ञों का नाम महायज्ञ है।
  1. ब्रह्मयज्ञ :- सुबह और शाम की संध्या और खुद के द्वारा किया जाने वाला अध्ययन.
  2. देवयज्ञ :- प्रात: काल तथा सायंकाल में किया जाने वाला हवन.
  3. पितृयज्ञ :- देव और पितरों की पूजा अर्थात माता पिता गुरु आदि की सेवा तथा उनके प्रति श्रद्धा भक्ति.
  4. बलिवैश्चदेवयज्ञ :- पकाये हुये अन्न में से अन्य प्राणियों के लिये भाग निकालना.
  5. अतिथियज्ञ :- घर पर आये हुये अतिथियों का सत्कार ये यज्ञ अवान्तर भेद है।
यह यज्ञ और महायज्ञ वेदों में बतलायी हुयी विधि के अनुसार होनी चाहिये,इसलिये जैमिनि मुनि ने इनकी सिद्धि के लिये ’शब्द’ अर्थात ’आगम’ प्रमाण ही माना है,जो ’वेद’ है।
वेद के पांच प्रकार के विषय हैं - 
  1. विधि
  2. मन्त्र
  3. नामधेय
  4. निषेध
  5. अर्थवाद
’स्वर्गकामो यजेत’ स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करे,इस प्रकार के वाक्यों को विधि कहते है,अनुष्ठान के अर्थ स्मारक वचनों को मंत्र के नाम से पुकारते है,यज्ञों के नामकी ’नामधेय’ संज्ञा है,अनुचित कार्य से विरत होने को ’निषेध’ कहते है,तथा किसी पदार्थ के सच्चे गुणों के कथन को ’अर्थवाद’ कहते है इन पांच विषयों के होने पर भी वेद का तात्पर्य विधिवाक्यों में ही है। अन्य चारों विषय उनके केवल अंगभूत है तथा पुरुषों को अनुष्ठान के लिये उत्सुक बनाकर विधि ’उत्पत्ति-विधि’ है। अंग तथा प्रधान अनुष्ठानो के सम्बन्धबोधक विधि को ’विनियोग-विधि’ कर्म से उत्पन्न फ़ल के स्वामित्व को कहने वाली विधि को ’अधिकार-विधि’ तथा प्रयोग के प्राशुभाव (शीघ्रता) के बोधक विधि को ’प्रयोगविधि’ कहते है। विध्यर्थ निर्णय करने में सहायक श्रुति,लिंग,वाक्य,प्रकरण,स्थान तथा समाख्या नामक षट प्रमाण होते हैं।
जैमिनि के मतानुसार यज्ञों से स्वर्ग अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ’स्वर्गकामो यजेत’ स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करें। यज्ञ के विषय में श्रीमद्भागवतगीता में ऐसा वर्णन किया गया है:-
"यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग समाचर"
 
अर्थात यज्ञ के लिये जो कर्म किये जाते है,उनके अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा हुया है,तदर्थ अर्थात यज्ञार्थ किये जाने वाले कर्म भी तू आसक्ति अथवा फ़लाशा छोड कर करता जा।

"सहयज्ञा: प्रजा: सृष्टा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक॥"

प्रारम्भ में यज्ञ के साथ साथ प्रजा को उत्पन्न करके ब्रह्मा ने प्रजा से कहा इस यज्ञ के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो यह यज्ञ तुम्हारी कामधेनु हो अर्थात यह तुम्हारे इष्ट फ़लों को देने वाला हो।

1 comment:

Unknown said...

कलीयुगमे भगवान व्यापक होगया सभी भगवान है यहा "नकलंकी" अवतार है भगवानका "वामन रूपे फरे छे विराट" जैसे भगवदगीतामे भगवानने अपना स्वरुप विराट बताया है। कलीयुग ये ऐसा युग है जीसमे देवी देवताभी तरसते है के हमेभी जन्म मीले कलीयुगमे और वहभी मनुष्य अवतारमें क्योकी बाकी सारे युगमे भगवान अलगसे अवतार लेतेथे तो उन्हे ढुंढने जाना पडताथा पर अब सारे मनुष्योका अवतारही भगवानका अवतार है व्यापक है भगवान सारे विश्वमे ...और ईसीलिये आखिरी मौका है सभीमे दर्शन करलो भगवानका जैसी भावना ऐसी सिध्धि सुना है न ! नकलंकीका मतलब जबभी भगवानने अवतार लिये तो कोइना कोइ मनुष्य उनमे दोष देखते जबकी भगवानमे कोइ दोश है ही नही जो अगर भगवानमे दोश देखते हो तो जरा देख लेना अपनी नजरोको हजारो दोश मीलेंगे उसमे और यह दोश समाप्त करनेके लिये सारे विश्वमे मनुष्य रुपमे विस्तार कर लिया है अपना भगवानने इसीलिये संत कबीरनेभी एक भजनमे कहा 'अपना दोश निहारलो नबस होगया भजन भगवानका' मतलबके खुदके दोश देखके भगवानके समीप हो जाना उसकाही आधार लेके अपनेकोही भगवानमे समर्पित करना जीससे साक्षात्कार होजाये सिध्धहो जाये ज्ञान हो जाये भगवानही है 'मै' नही व्यापक दर्शन पाले जीससे 'मै' मेरा और तु तेरा और भगवान ये सब लुका छुपीका खेलमे ईश्वरकी आज्ञाके बगैर पत्ताभी नही हिलता यह ज्ञात हो जाये और समर्पण होजाये जीवन भगवानके चरणोमे जीससे मोक्ष गतीमे जीवन चला जाये और मनुष्य जीवनका उदेष्यभी पूरा होजाये सभीका अत्मकल्याणहो जीसमे आत्मासे परमात्म तकका सफर तय होजाये जो अनंत है । जै गुरुजी जीसमे गुः याने अंधकार और रुः याने प्रकाश गुरु वह जो इस जीवको अंधकारसे उजालेमे ले आये । सभीमे गुरु दर्शन करनेसे यह सफर जल्दी तय हो जाता है जैसेकी औरतमे देखना जब हमे खाना बनाके देती है तो भुखको शांत करके हमे प्रकाशमे लाती है, बच्चेमेभी ऐसेही देखे और बच्चेके हम गुरु है उसके पिताके रुपमे याने जब जबभी जो हमे अंधकारसे बार निकाले उसे हम मनमे गुरु समझ शकते है जीससे आत्मासे परमात्मा तक सफर तय हो शके गुरुके चरणोमे कोटी कोटी वंदन जो निराकार है और बुध्ध्दिमे ज्ञानके रुपमे प्रघट होते है और अंधकारसे सदैवही बाहर निकालते रहते है। व्यापक सब घट आत्मा जाको आदि ना अंत सो मेरे उर नीत बसे जै जै गुरुभगवंत जाको गावत वेद नीत अकल अखंद अनंत सो मेरो निज आत्मा जै जै गुरुभगवंत गुरुके चरणोमे मेरा जीवन शरणागत हो जाये यही जीवनकी सच्ची प्रार्थना। जै गुरु ॐ।
भगवानकी लीला है ये अगर कीसी मनुष्यको ज्ञात हो जाये सचमे उसे सत्यका ज्ञान हो जाता है ये लीला बताते है कृष्णकी पर हयाती(ज़िंदगी या जीवन संबंधी; प्राण संबंधी )मे जो है ये सारा संसार हाल अभी याने जो हमारा शरीर और इस शरीरसे जोभी हम कर पा रहे है या कर रहे या कार्य हो रहे है यह सारा कुछ परमात्मकी लीला है यह जीसे ज्ञान होजाता है उसेभी मील जाते है परमात्मा और द्रष्टा बन जाता है इस लीला रूपी संसारका अपने जीवनका पर इसके लीये अभ्यास है एक राम जो हमार मन-वाणी दुसरे राम है श्वास जो धट घट व्यापक है तीसरे राम सर्जनहारा याने शिवम् अस्तु सर्व जगत है और चौथे राम है न्यारे जो सबसे उपर जो अपने श्वास को ले जाके सदाके लीये बैठादे अपने मस्तिकमे जीतेजी जिससे हो जाता है साक्षात अनुभव | Learning by Direct Experience नहीतो यह श्वास इन्सान जब मरजाता है तब तो चार घन्टे उनका श्वास रहता है इस देहमे और भगवान साक्षात मीलनेभी आते है पर जैसे आज जी रहा है मनुष्य वास्तवसे परे अपनी भ्रामक दुनियामे मरनेके समयभी यही हाल रहते है और कहते है परमात्मा सबको सद्बुध्धिदे जबकी परमात्माही है सबकुछ हमारे जीवनका अस्तित्व रूवे रूवे, रोम-रोम में समाया है वही है वास्तविकता हमारा होना यह है सच और बाकी उस जगदीश्वरकी लीला जो हाल आज अभी चल रहा है हमारा आपका सारे विश्वका सच । जै गुरुदेव तुम्हारे चरणोमे कोटी कोटी वंदन गुरुवे जो सिर्फ मतीमे ज्ञानके रूपमेही दर्शन देते है और जो विश्वके सारे शरीरोमे एक है या यु कहे पूरे अखिल ब्रह्मांडमे है एक । व्यापक सब घट आत्मा जाको आदि ना अंत सो मेरे उर नीत बसे जै जै गुरु भगवंत जाको गावत वेद नीत अकल अखंद अनंत सो मेरो नीज अत्मा जै जै गुरु भगवंत ।