अन्य वेदों में पूर्वमीमांसा की व्याख्या

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:
तदेव शुक्रं तद ब्रह्म ता आप: स: प्रजापति:

यजुर्वेद में कहा गया है कि - "वही अग्नि है वह सूर्य है,वह वायु है वह चन्द्रमा है,वह शुक्र अर्थात चमकता हुआ नक्षत्र है वह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) है वह जल (इन्द्र) है,वह प्रजापति (विराट) है।

स धाता स विधर्ता स वायुर्नभ उछ्रितम
सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:

वह ईश्वर धाता है,वह विधाता है,वही वायु है वही आकाश में उठा मेघ है,वही अर्यमा वही वरुण रुद्र और महादेव है,वही अग्नि सूर्य और महायम है।


स वरुण: सामग्निर्भवति स मित्रो भवति प्रातरुद्यन,
स सविता भूत्वान्तरिक्षेण याति स इन्द्रो भूत्वा तपति मध्यतो दिवम


वह सायंकाल अग्नि और वरुण होता है,और प्रात:काल उदय होता हुआ वह मित्र होता है,वह सविता होकर अन्तरिक्ष से चलता है,वह इन्द्र होकर मध्य से द्युलोक को तपाता है।
यास्क ने निरुक्तके दैवतकाण्ड (सप्तम अध्याय) में स्पष्ट शब्दों में विवेचना की है कि इस जगत के मूल में एक महत्वशालिनी शक्ति विद्यमान है,जो निरतिशय ऐश्वर्यशालिनी होने से ईश्वर कहलाती है,वह एक अद्वितीय है,उसी एक देवता की बहुत रूपों से स्तुति की जाती है। यथा -

महाभाग्याद देवताया एक एव आत्मा बहुधा स्तूयते
एकास्यात्मनोऽन्ये  देवा: प्रत्यंगानि भवन्ति

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हानोपाय
इसी प्रकार जहां उत्तरमीमांसा में हानोपाय अर्थात मुक्ति का साधन ज्ञानियों तथा सन्यासियों के लिये ज्ञान के द्वारा तीसरे तत्व अर्थात परमात्मा की उपासना बतलायी गयी है। वहाँ पूर्वमीमांसा में कर्मकाण्डी गृहस्थियों के लिये यज्ञों के द्वारा व्यष्टि रूप से उसी ब्रह्म की उपासना बतलायी गयी है।

हान
 किन्तु हान अर्थात मुक्ति के सम्बन्ध में जैमिनि और व्यास भगवान में कोई विशेष मतभेद नहीं है तथा अन्य दर्शनकारों से भी अविरोध है। यथा --
ब्राह्मेण जैमिनिरूपन्यासादिभ्य:

जमिनि आचार्य का मत है कि मुक्त पुरुष (अपर) ब्रह्मस्वरूप से स्थिति होता है,क्योंकि श्रुति में उसी रूप का उपन्यास (उद्देश्य ) है।

चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौंगुलोमि:

अंगोलोमि में आचार्य मानते है के मुक्त पुरुष चितितमात्र स्वरूप से स्थित होता है,क्योंकि यही उसका अपना स्वरूप है।

एवमप्युपन्यासात्पूर्वभावादविरोधं बादरायण:

इस प्रकार भी उपन्यास (उद्देश्य) है और पूर्व कहे हुये धर्म भी इनमें पाये जाते है इसलिये उन दोनों में कोई विरोध नही है यह बादरायण (सूत्रकार व्यास जी) मानते हैं। 
अर्थात प्रवृत्ति मार्ग वाले सगुण ब्रह्म के उपासक शबल सगुण स्वरूप से मुक्ति में शबल ब्रह्म (अपरब्रह्म) के ऐश्वर्य भोगते हैं,जो जैमिनि जी को अभिमत हैं। और निवृत्ति मार्ग वाले निर्गुण शुद्ध ब्रह्म के उपासक शुद्ध निर्गुण स्वरूप से शुद्ध निर्गुण ब्रह्म (परब्रह्म) को प्राप्त होते है,जैसा कि औडुलोमि आचार्य को अभिमत है। व्यासजी दोनो विचारों को यथार्थ मानते हैं; क्योंकि श्रुति में दोनो प्रकार की मुक्ति का वर्णन है।
मीमांसा के मोक्ष की परिभाषा इन शब्दों में है -
प्रपंचसम्बन्धविलयो मोक्ष:। त्रेधा हि प्रपंच:। पुरुषं बन्धाति त्रिविधस्यापि बन्धस्य आत्यन्तिको विलयो मोक्ष:।

यह कथन शास्त्रदीपिका में लिखा है,इस जगत के साथ आत्मा के शरीर इन्द्रिय और विषय इन तीन प्रकार के सम्बन्ध के विनाश का नाम मोक्ष है; क्योंकि इन तीन बन्धनों ने ही पुरुष को जकड रखा है,इस त्रिविध बन्ध के आत्यन्ति नाश की संज्ञा मोक्ष है। सांख्य और योग के अनुसार यह सम्प्रज्ञात समाधि का अन्तिम ध्येय है।  

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