देवान्भाव्यतानेन ते देवा भवयन्तु व:
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
प्रजापति ब्रह्मा यह बोले कि तुम इस यज्ञ से देवताओं को संतुष्ट करते रहो और वे देवता वर्षा आदि से तुम्हे संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को संतुष्ट करते हुये दोनों परम श्रेय अर्थाथ कल्याण प्राप्त कर लो।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंगक्ते स्तेन एव स:
क्योंकि यज्ञ से संतुष्ट होकर देवता लोग तुम्हारे इच्छित सब भोग तुम्हे देंगे,उन्ही का दिया हुआ उन्हे वापिस न देकर जो केवल स्वयं उपभोग करता है,अर्थात देवताओं से दिये गये अन्न आदि से पंचमहायज्ञ आदि द्वारा उन देवताओं का पूजन किये बिना जो व्यक्ति खाता पीती है,वह सचमुच का चोर है।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वाकिल्बिषै:
भुंन्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात॥
यज्ञ करके शेष बचे हुये भाग को ग्रहण करने वाले सज्जन सब पापॊ से मुक्त हो जाते है,परन्तु यज्ञ न करके केवल अपने लिये ही जो अन्न पकाते है,वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं।
अन्नादिभवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:
अन्न से प्राणिमात्र की उत्पत्ति होती है,अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होता है,पर्जन्य यज्ञ से उत्पन्न होता है,और यज्ञ की उत्पत्ति वैदिक कर्म से होती है।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम
तस्मात सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम
उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है,इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
यहाँ तीसरे चेतन तत्व अर्थात ईश्वर को व्यष्टि रूप से प्रत्येक यज्ञ का अधिष्ठाता देव माना गया है,जिसकी उस विशेष यज्ञ द्वारा उपासना की जाती है। जैसा कि ’बृहदकारण्ड्य उपनिषद’ मे लिखा है:-
तद यदिदमाहु: अमुं यजामुं यज इत्येकैकं देवम
एतस्यैव सा विसृष्टि: एष उ ह्वेव सर्वे देवा:
जो कहते है कि उसका याग करो इसका याग करो इस प्रकार एक एक देवता का याग बतलाते है,वह इसी की विसृष्टि: बिखरा हुआ है,अर्थात व्यष्टि रूप है,नि:सन्देह यह ही सारे देवता हैं। अर्थात अग्नि उस ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है,उसी का प्रकाशक है। इसी प्रकार दूसरे देवता भी उसी के प्रकाशक हैं,इसलिये यज्ञों में जो आग इन्द्र आदि भिन्न भिन्न देवताओं की उपासना पायी जाती है,वह वास्तव में उसी एक ब्रह्म की उपासना है।
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