तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:
तदेव शुक्रं तद ब्रह्म ता आप: स: प्रजापति:
यजुर्वेद में कहा गया है कि - "वही अग्नि है वह सूर्य है,वह वायु है वह चन्द्रमा है,वह शुक्र अर्थात चमकता हुआ नक्षत्र है वह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) है वह जल (इन्द्र) है,वह प्रजापति (विराट) है।
स धाता स विधर्ता स वायुर्नभ उछ्रितम
सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:
वह ईश्वर धाता है,वह विधाता है,वही वायु है वही आकाश में उठा मेघ है,वही अर्यमा वही वरुण रुद्र और महादेव है,वही अग्नि सूर्य और महायम है।
स वरुण: सामग्निर्भवति स मित्रो भवति प्रातरुद्यन,
स सविता भूत्वान्तरिक्षेण याति स इन्द्रो भूत्वा तपति मध्यतो दिवम
वह सायंकाल अग्नि और वरुण होता है,और प्रात:काल उदय होता हुआ वह मित्र होता है,वह सविता होकर अन्तरिक्ष से चलता है,वह इन्द्र होकर मध्य से द्युलोक को तपाता है।
यास्क ने निरुक्तके दैवतकाण्ड (सप्तम अध्याय) में स्पष्ट शब्दों में विवेचना की है कि इस जगत के मूल में एक महत्वशालिनी शक्ति विद्यमान है,जो निरतिशय ऐश्वर्यशालिनी होने से ईश्वर कहलाती है,वह एक अद्वितीय है,उसी एक देवता की बहुत रूपों से स्तुति की जाती है। यथा -
महाभाग्याद देवताया एक एव आत्मा बहुधा स्तूयते
एकास्यात्मनोऽन्ये देवा: प्रत्यंगानि भवन्ति
--------------------------------------
हानोपाय
इसी प्रकार जहां उत्तरमीमांसा में हानोपाय अर्थात मुक्ति का साधन ज्ञानियों तथा सन्यासियों के लिये ज्ञान के द्वारा तीसरे तत्व अर्थात परमात्मा की उपासना बतलायी गयी है। वहाँ पूर्वमीमांसा में कर्मकाण्डी गृहस्थियों के लिये यज्ञों के द्वारा व्यष्टि रूप से उसी ब्रह्म की उपासना बतलायी गयी है।
हान
किन्तु हान अर्थात मुक्ति के सम्बन्ध में जैमिनि और व्यास भगवान में कोई विशेष मतभेद नहीं है तथा अन्य दर्शनकारों से भी अविरोध है। यथा --
ब्राह्मेण जैमिनिरूपन्यासादिभ्य:
जमिनि आचार्य का मत है कि मुक्त पुरुष (अपर) ब्रह्मस्वरूप से स्थिति होता है,क्योंकि श्रुति में उसी रूप का उपन्यास (उद्देश्य ) है।
चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौंगुलोमि:
अंगोलोमि में आचार्य मानते है के मुक्त पुरुष चितितमात्र स्वरूप से स्थित होता है,क्योंकि यही उसका अपना स्वरूप है।
एवमप्युपन्यासात्पूर्वभावादविरोधं बादरायण:
इस प्रकार भी उपन्यास (उद्देश्य) है और पूर्व कहे हुये धर्म भी इनमें पाये जाते है इसलिये उन दोनों में कोई विरोध नही है यह बादरायण (सूत्रकार व्यास जी) मानते हैं।
अर्थात प्रवृत्ति मार्ग वाले सगुण ब्रह्म के उपासक शबल सगुण स्वरूप से मुक्ति में शबल ब्रह्म (अपरब्रह्म) के ऐश्वर्य भोगते हैं,जो जैमिनि जी को अभिमत हैं। और निवृत्ति मार्ग वाले निर्गुण शुद्ध ब्रह्म के उपासक शुद्ध निर्गुण स्वरूप से शुद्ध निर्गुण ब्रह्म (परब्रह्म) को प्राप्त होते है,जैसा कि औडुलोमि आचार्य को अभिमत है। व्यासजी दोनो विचारों को यथार्थ मानते हैं; क्योंकि श्रुति में दोनो प्रकार की मुक्ति का वर्णन है।
मीमांसा के मोक्ष की परिभाषा इन शब्दों में है -
प्रपंचसम्बन्धविलयो मोक्ष:। त्रेधा हि प्रपंच:। पुरुषं बन्धाति त्रिविधस्यापि बन्धस्य आत्यन्तिको विलयो मोक्ष:।
यह कथन शास्त्रदीपिका में लिखा है,इस जगत के साथ आत्मा के शरीर इन्द्रिय और विषय इन तीन प्रकार के सम्बन्ध के विनाश का नाम मोक्ष है; क्योंकि इन तीन बन्धनों ने ही पुरुष को जकड रखा है,इस त्रिविध बन्ध के आत्यन्ति नाश की संज्ञा मोक्ष है। सांख्य और योग के अनुसार यह सम्प्रज्ञात समाधि का अन्तिम ध्येय है।
ज्योतिष में योग,मन्दिर में भोग,अस्पताल में रोग,ज्योतिर्विद,पुजारी,और वैद्य के बस की बात ही होती है.
श्रीमद्भागवत गीता में पूर्वमीमांसा की व्याख्या
देवान्भाव्यतानेन ते देवा भवयन्तु व:
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
प्रजापति ब्रह्मा यह बोले कि तुम इस यज्ञ से देवताओं को संतुष्ट करते रहो और वे देवता वर्षा आदि से तुम्हे संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को संतुष्ट करते हुये दोनों परम श्रेय अर्थाथ कल्याण प्राप्त कर लो।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंगक्ते स्तेन एव स:
क्योंकि यज्ञ से संतुष्ट होकर देवता लोग तुम्हारे इच्छित सब भोग तुम्हे देंगे,उन्ही का दिया हुआ उन्हे वापिस न देकर जो केवल स्वयं उपभोग करता है,अर्थात देवताओं से दिये गये अन्न आदि से पंचमहायज्ञ आदि द्वारा उन देवताओं का पूजन किये बिना जो व्यक्ति खाता पीती है,वह सचमुच का चोर है।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वाकिल्बिषै:
भुंन्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात॥
यज्ञ करके शेष बचे हुये भाग को ग्रहण करने वाले सज्जन सब पापॊ से मुक्त हो जाते है,परन्तु यज्ञ न करके केवल अपने लिये ही जो अन्न पकाते है,वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं।
अन्नादिभवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:
अन्न से प्राणिमात्र की उत्पत्ति होती है,अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होता है,पर्जन्य यज्ञ से उत्पन्न होता है,और यज्ञ की उत्पत्ति वैदिक कर्म से होती है।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम
तस्मात सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम
उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है,इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
यहाँ तीसरे चेतन तत्व अर्थात ईश्वर को व्यष्टि रूप से प्रत्येक यज्ञ का अधिष्ठाता देव माना गया है,जिसकी उस विशेष यज्ञ द्वारा उपासना की जाती है। जैसा कि ’बृहदकारण्ड्य उपनिषद’ मे लिखा है:-
तद यदिदमाहु: अमुं यजामुं यज इत्येकैकं देवम
एतस्यैव सा विसृष्टि: एष उ ह्वेव सर्वे देवा:
जो कहते है कि उसका याग करो इसका याग करो इस प्रकार एक एक देवता का याग बतलाते है,वह इसी की विसृष्टि: बिखरा हुआ है,अर्थात व्यष्टि रूप है,नि:सन्देह यह ही सारे देवता हैं। अर्थात अग्नि उस ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है,उसी का प्रकाशक है। इसी प्रकार दूसरे देवता भी उसी के प्रकाशक हैं,इसलिये यज्ञों में जो आग इन्द्र आदि भिन्न भिन्न देवताओं की उपासना पायी जाती है,वह वास्तव में उसी एक ब्रह्म की उपासना है।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
प्रजापति ब्रह्मा यह बोले कि तुम इस यज्ञ से देवताओं को संतुष्ट करते रहो और वे देवता वर्षा आदि से तुम्हे संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को संतुष्ट करते हुये दोनों परम श्रेय अर्थाथ कल्याण प्राप्त कर लो।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंगक्ते स्तेन एव स:
क्योंकि यज्ञ से संतुष्ट होकर देवता लोग तुम्हारे इच्छित सब भोग तुम्हे देंगे,उन्ही का दिया हुआ उन्हे वापिस न देकर जो केवल स्वयं उपभोग करता है,अर्थात देवताओं से दिये गये अन्न आदि से पंचमहायज्ञ आदि द्वारा उन देवताओं का पूजन किये बिना जो व्यक्ति खाता पीती है,वह सचमुच का चोर है।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वाकिल्बिषै:
भुंन्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात॥
यज्ञ करके शेष बचे हुये भाग को ग्रहण करने वाले सज्जन सब पापॊ से मुक्त हो जाते है,परन्तु यज्ञ न करके केवल अपने लिये ही जो अन्न पकाते है,वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं।
अन्नादिभवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:
अन्न से प्राणिमात्र की उत्पत्ति होती है,अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होता है,पर्जन्य यज्ञ से उत्पन्न होता है,और यज्ञ की उत्पत्ति वैदिक कर्म से होती है।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम
तस्मात सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम
उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है,इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
यहाँ तीसरे चेतन तत्व अर्थात ईश्वर को व्यष्टि रूप से प्रत्येक यज्ञ का अधिष्ठाता देव माना गया है,जिसकी उस विशेष यज्ञ द्वारा उपासना की जाती है। जैसा कि ’बृहदकारण्ड्य उपनिषद’ मे लिखा है:-
तद यदिदमाहु: अमुं यजामुं यज इत्येकैकं देवम
एतस्यैव सा विसृष्टि: एष उ ह्वेव सर्वे देवा:
जो कहते है कि उसका याग करो इसका याग करो इस प्रकार एक एक देवता का याग बतलाते है,वह इसी की विसृष्टि: बिखरा हुआ है,अर्थात व्यष्टि रूप है,नि:सन्देह यह ही सारे देवता हैं। अर्थात अग्नि उस ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है,उसी का प्रकाशक है। इसी प्रकार दूसरे देवता भी उसी के प्रकाशक हैं,इसलिये यज्ञों में जो आग इन्द्र आदि भिन्न भिन्न देवताओं की उपासना पायी जाती है,वह वास्तव में उसी एक ब्रह्म की उपासना है।
दूसरा प्रकरण (पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा)
कर्मकाण्ड
वेद मंत्रों में बतलायी हुयी - कर्तव्य कर्मों अर्थात इष्ट और पूर्त कर्मों की शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है,इष्ट वे कर्म है,जिनकी विधि मन्त्रों में दी गयी है,जैसे यज्ञादि और पूर्त वे सामाजिक कर्म है,जिनकी आज्ञा वेदमें हो किन्तु विधि लौकिक हो जैसे पाठशाला कूप विद्यालय अनाथालय आदि बनवाना इत्यादि। इन दोनो कर्मों के तीन अवान्तर भेद है नित्यकर्म नैमित्तिक कर्म,और काम्यकर्म।
(ब) प्रायश्चित कर्म:- जो विहित कर्म न करने अथवा विधिविरुद्ध के करने या वर्जित कर्म करने से अन्त:करण पर मलिन संस्कार पड जाते है,उनके धोने के लिये किये जायें।
नित्य कर्म करने के लिये मनुष्य को व्यवहारिक रूप की बजाय स्वजीवन में अपनाने की बात कही गयी है,जिस प्रकार से रहने वाले स्थान की साफ़ सफ़ाई करने के बाद स्थान रहने में दिक्कत नही आती है उसी प्रकार से शरीर की साफ़ सफ़ाई करने के बाद आत्मा को कोई तकलीफ़ नही होती है। नित्य कर्मों के अन्दर जो बातें एक योगी के लिये बताई गयीं है वे इस प्रकार से है।
किसी कामना की सिद्धि के लिये किये गये कर्मों का फ़ल भोगना ही पडेगा,तथा प्रतिषिद्ध कर्मो का आचरण अशुभ फ़ल करेगा ही। अत: इस प्रकार के कर्मों से दूर रहना जरूरी है। लेकिन नित्य कर्मों और नैमित्तिक कर्मों को करना बहुत ही जरूरी है,कामना के लिये किये कर्मों और जो कर्म नही करने होते है उनसे दूरी लेकिन उनके लिये पहले प्रयश्चित और नित्य और नैमित्तिक कर्मों में लगातार लगे रहने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उपासना खण्ड
मन इन्द्रियों की लगाम की तरह से है,इसे ढीला करने से इन्द्रियां अपने नियत स्थान से पता नहीं कहाँ से कहाँ जाने लगेंगी इस मन को बुद्धि के द्वारा साध कर केवल एक ही दिशा में ले जाने के लिये वेदमन्त्रों में लवलीनता के रूप में बताया गया है,किसी एक मन्त्र को लगातार मन में ग्रहण करने के बाद मन को साधा जा सकता है,यही उपासना खंड का रूप है,और यही पूजा पाठ के रूप में माना जाता है,जब मन एक ही लक्ष्य पर चला जाता है तो किया जाने वाला कार्य जरूर पूरा होता है,वह चेतन मन से हो या अवचेतन मन से।
ज्ञानकाण्ड
वेद मन्त्रों में जहां जहां आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है,उसको ज्ञानकाण्ड कहते है,मन्त्रों के कर्मकाण्ड का विस्तारपूर्वक वर्णन मुख्यतया ब्राह्मण ग्रंथों में ज्ञानकाण्ड का आरण्यकों में तथा उपनिषदों में और उपासनाकाण्ड का दोनों में वर्णन किया गया है।
मीमांसा
इन तीनो काण्डों के वेदार्थ विषयक विचार को मीमांस कहते है,मीमांसा शब्द ’मान ज्ञाने’ से जिज्ञासा अर्थ में ’माने जिज्ञासायाम’ वर्तिक की सहायता से निष्पन्न होता है,मीमांसा के दो भेद है- ’पूर्व मीमांसा’ और ’उत्तरमीमांशा’। पूर्व मीमांसा में कर्म काण्ड और उत्तरमीमांसा में ज्ञानकाण्ड पर विचार किया गया है।
उपासना दोनो में सम्मिलित है,इस प्रकार ये दोनो दर्शन वास्तव में एक ही ग्रन्थ के दो भाग कहे जाते है,पूर्वमीमांसा श्रीव्यासदेवजी के शिष्य जैमिन मुनि ने प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थियों तथा कर्मकाण्डियों के लिये बनायी है,उसका प्रसिद्द नाम मीमांसादर्शन है। इसको जैमिनि दर्शन भी कहते है,इसके बारह अध्याय है जो मुख्यतया कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखते है। उत्तरमीमांस निवृत्तिमार्ग वाले ज्ञानियों तथा सन्यासियों के लिये श्रीव्यास महाराज ने स्वयं रचा है। वेदों के कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्यों में जो विरोध प्रतीत होता है,केवल उसके वास्तविक अविरोध को दिखलाने के लिये पूर्वमीमांसा की और वेद के ज्ञानकाण्ड में समन्वयसाधन और अविरोध की स्थापना के लिये उत्तरमीमांसा की रचना की गयी है। इस कारण इन दोनों दर्शनों में शब्द प्रमाण को ही प्रधानता दी गयी है,दोनो दर्शनकार लगभग समकालीन हुये है,इसलिये श्री जैमिनि का भी वही समय लेना चाहिये जो उत्तरमीमांसा के प्रकरण में श्रीव्यासदेवजी महाराज का बतलाया गया है।
वेद के पांच प्रकार के विषय हैं -
जैमिनि के मतानुसार यज्ञों से स्वर्ग अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ’स्वर्गकामो यजेत’ स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करें। यज्ञ के विषय में श्रीमद्भागवतगीता में ऐसा वर्णन किया गया है:-
"यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग समाचर"
अर्थात यज्ञ के लिये जो कर्म किये जाते है,उनके अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा हुया है,तदर्थ अर्थात यज्ञार्थ किये जाने वाले कर्म भी तू आसक्ति अथवा फ़लाशा छोड कर करता जा।
"सहयज्ञा: प्रजा: सृष्टा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक॥"
प्रारम्भ में यज्ञ के साथ साथ प्रजा को उत्पन्न करके ब्रह्मा ने प्रजा से कहा इस यज्ञ के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो यह यज्ञ तुम्हारी कामधेनु हो अर्थात यह तुम्हारे इष्ट फ़लों को देने वाला हो।
वेद मंत्रों में बतलायी हुयी - कर्तव्य कर्मों अर्थात इष्ट और पूर्त कर्मों की शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है,इष्ट वे कर्म है,जिनकी विधि मन्त्रों में दी गयी है,जैसे यज्ञादि और पूर्त वे सामाजिक कर्म है,जिनकी आज्ञा वेदमें हो किन्तु विधि लौकिक हो जैसे पाठशाला कूप विद्यालय अनाथालय आदि बनवाना इत्यादि। इन दोनो कर्मों के तीन अवान्तर भेद है नित्यकर्म नैमित्तिक कर्म,और काम्यकर्म।
- नित्य कर्म:- वे कर्म है जो नित्य किये जायें जैसे पंचमहायज्ञ आदि.
- नैमित्तिक कर्म :- वे कर्म है जो किसी निमित्त के होने पर किये जायें जैसे पुत्र का जन्म होने पर जातकर्म.
- काम्यकर्म :- वे कर्म है जो किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामना से किये जायें,इनके अतिरिक्त कर्मो के दो भेद और हैं जैसे निषिद्ध और प्रायश्चित कर्म आदि।
(ब) प्रायश्चित कर्म:- जो विहित कर्म न करने अथवा विधिविरुद्ध के करने या वर्जित कर्म करने से अन्त:करण पर मलिन संस्कार पड जाते है,उनके धोने के लिये किये जायें।
नित्य कर्म करने के लिये मनुष्य को व्यवहारिक रूप की बजाय स्वजीवन में अपनाने की बात कही गयी है,जिस प्रकार से रहने वाले स्थान की साफ़ सफ़ाई करने के बाद स्थान रहने में दिक्कत नही आती है उसी प्रकार से शरीर की साफ़ सफ़ाई करने के बाद आत्मा को कोई तकलीफ़ नही होती है। नित्य कर्मों के अन्दर जो बातें एक योगी के लिये बताई गयीं है वे इस प्रकार से है।
किसी कामना की सिद्धि के लिये किये गये कर्मों का फ़ल भोगना ही पडेगा,तथा प्रतिषिद्ध कर्मो का आचरण अशुभ फ़ल करेगा ही। अत: इस प्रकार के कर्मों से दूर रहना जरूरी है। लेकिन नित्य कर्मों और नैमित्तिक कर्मों को करना बहुत ही जरूरी है,कामना के लिये किये कर्मों और जो कर्म नही करने होते है उनसे दूरी लेकिन उनके लिये पहले प्रयश्चित और नित्य और नैमित्तिक कर्मों में लगातार लगे रहने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उपासना खण्ड
मन इन्द्रियों की लगाम की तरह से है,इसे ढीला करने से इन्द्रियां अपने नियत स्थान से पता नहीं कहाँ से कहाँ जाने लगेंगी इस मन को बुद्धि के द्वारा साध कर केवल एक ही दिशा में ले जाने के लिये वेदमन्त्रों में लवलीनता के रूप में बताया गया है,किसी एक मन्त्र को लगातार मन में ग्रहण करने के बाद मन को साधा जा सकता है,यही उपासना खंड का रूप है,और यही पूजा पाठ के रूप में माना जाता है,जब मन एक ही लक्ष्य पर चला जाता है तो किया जाने वाला कार्य जरूर पूरा होता है,वह चेतन मन से हो या अवचेतन मन से।
ज्ञानकाण्ड
वेद मन्त्रों में जहां जहां आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है,उसको ज्ञानकाण्ड कहते है,मन्त्रों के कर्मकाण्ड का विस्तारपूर्वक वर्णन मुख्यतया ब्राह्मण ग्रंथों में ज्ञानकाण्ड का आरण्यकों में तथा उपनिषदों में और उपासनाकाण्ड का दोनों में वर्णन किया गया है।
मीमांसा
इन तीनो काण्डों के वेदार्थ विषयक विचार को मीमांस कहते है,मीमांसा शब्द ’मान ज्ञाने’ से जिज्ञासा अर्थ में ’माने जिज्ञासायाम’ वर्तिक की सहायता से निष्पन्न होता है,मीमांसा के दो भेद है- ’पूर्व मीमांसा’ और ’उत्तरमीमांशा’। पूर्व मीमांसा में कर्म काण्ड और उत्तरमीमांसा में ज्ञानकाण्ड पर विचार किया गया है।
उपासना दोनो में सम्मिलित है,इस प्रकार ये दोनो दर्शन वास्तव में एक ही ग्रन्थ के दो भाग कहे जाते है,पूर्वमीमांसा श्रीव्यासदेवजी के शिष्य जैमिन मुनि ने प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थियों तथा कर्मकाण्डियों के लिये बनायी है,उसका प्रसिद्द नाम मीमांसादर्शन है। इसको जैमिनि दर्शन भी कहते है,इसके बारह अध्याय है जो मुख्यतया कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखते है। उत्तरमीमांस निवृत्तिमार्ग वाले ज्ञानियों तथा सन्यासियों के लिये श्रीव्यास महाराज ने स्वयं रचा है। वेदों के कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्यों में जो विरोध प्रतीत होता है,केवल उसके वास्तविक अविरोध को दिखलाने के लिये पूर्वमीमांसा की और वेद के ज्ञानकाण्ड में समन्वयसाधन और अविरोध की स्थापना के लिये उत्तरमीमांसा की रचना की गयी है। इस कारण इन दोनों दर्शनों में शब्द प्रमाण को ही प्रधानता दी गयी है,दोनो दर्शनकार लगभग समकालीन हुये है,इसलिये श्री जैमिनि का भी वही समय लेना चाहिये जो उत्तरमीमांसा के प्रकरण में श्रीव्यासदेवजी महाराज का बतलाया गया है।
पूर्वमीमांसा
मीमांसा का प्रथम सूत्र है ’अथातो धर्मजिज्ञासा’ अर्थात अब धर्म की जिज्ञासा करते हैं।
मीमांसा के अनुसार धर्म की व्याख्या वेदविहित शिष्टों से आचरण किये हुये कर्मों में अपना जीवन ढालना है। इसमें सब कर्मों को यज्ञों के अन्तर्गत कर दिया गया है,भगवान मनु ने भी ऐसा ही कहा है ’महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:’ महायज्ञों तथा यज्ञों द्वारा ब्राह्मण शरीर बनता है,पूर्णिमा तथा अमावस्या में जो छोटी छोटी इष्टियां की जाती है,इनका नाम यज्ञ और अश्वमेधादि यज्ञों का नाम महायज्ञ है।
- ब्रह्मयज्ञ :- सुबह और शाम की संध्या और खुद के द्वारा किया जाने वाला अध्ययन.
- देवयज्ञ :- प्रात: काल तथा सायंकाल में किया जाने वाला हवन.
- पितृयज्ञ :- देव और पितरों की पूजा अर्थात माता पिता गुरु आदि की सेवा तथा उनके प्रति श्रद्धा भक्ति.
- बलिवैश्चदेवयज्ञ :- पकाये हुये अन्न में से अन्य प्राणियों के लिये भाग निकालना.
- अतिथियज्ञ :- घर पर आये हुये अतिथियों का सत्कार ये यज्ञ अवान्तर भेद है।
वेद के पांच प्रकार के विषय हैं -
- विधि
- मन्त्र
- नामधेय
- निषेध
- अर्थवाद
जैमिनि के मतानुसार यज्ञों से स्वर्ग अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ’स्वर्गकामो यजेत’ स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करें। यज्ञ के विषय में श्रीमद्भागवतगीता में ऐसा वर्णन किया गया है:-
"यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग समाचर"
अर्थात यज्ञ के लिये जो कर्म किये जाते है,उनके अतिरिक्त अन्य कर्मों से यह लोक बंधा हुया है,तदर्थ अर्थात यज्ञार्थ किये जाने वाले कर्म भी तू आसक्ति अथवा फ़लाशा छोड कर करता जा।
"सहयज्ञा: प्रजा: सृष्टा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक॥"
प्रारम्भ में यज्ञ के साथ साथ प्रजा को उत्पन्न करके ब्रह्मा ने प्रजा से कहा इस यज्ञ के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो यह यज्ञ तुम्हारी कामधेनु हो अर्थात यह तुम्हारे इष्ट फ़लों को देने वाला हो।
ज्योतिष में योग


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